सनातन वैदिक साहित्य में महाकुम्भ पर्व का माहात्म्य, स्वरूप, कुम्भोत्पत्ति और महाकुम्भ की अवधारणा

Authored By: News Corridors Desk | 16 Jun 2025, 07:56 PM
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जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पुरो अरदन्न सिन्धून् । बिभेद गिरिं नवभिन्न कुम्भभा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः ।।

(ऋग्वेद १०।८९।७)

'कुम्भ-पर्वमें जानेवाला मनुष्य स्वयं दान-होमादि सत्कर्मोंके फलस्वरूप अपने पापोंको वैसे ही नष्ट करता है जैसे कुठार वनको काट देता है। जिस प्रकार गंगा नदी अपने तटोंको काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुम्भ-पर्व मनुष्यके पूर्वसंचित कर्मोंसे प्राप्त हुए शारीरिक पापोंको नष्ट करता है और नूतन (कच्चे) घड़ेकी तरह बादलको नष्ट-भ्रष्टकर संसारमें सुवृष्टि प्रदान करता है।'

'कुम्भी वेद्यां मा व्यथिष्ठा यज्ञायुधैराज्येनातिषिक्ता।'

(ऋग्वेद)

'हे कुम्भ-पर्व! तुम यज्ञीय वेदीमें यज्ञीय आयुधोंसे घृतद्वारा तृप्त होनेके कारण कष्टानुभव मत करो।'

युवं नरा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम् । कारोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भाँ असिञ्चतं सुरायाः ॥

(ऋग्वेद १।११६।७)

कुम्भो वनिष्टुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्रे योन्यां गर्भो अन्तः । प्लाशिर्व्यक्तः शतधारउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधां पितृभ्यः ॥

(शुक्लयजुर्वेद १९।८७)

'कुम्भ-पर्व सत्कर्मके द्वारा मनुष्यको इहलोकमें शारीरिक सुख देनेवाला और जन्मान्तरोंमें उत्कृष्ट सुखोंको देनेवाला है।'

आविशन्कलशः सुतो विश्वा अर्षन्नभिश्रियः । इन्दुरिन्द्राय धीयते ।।

(सामवेद, पू० ६।३)

पूर्णः कुम्भोऽधि काल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः । स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन ॥

(अथर्ववेद १९।५३।३)

'हे सन्तगण! पूर्णकुम्भ बारह वर्षके बाद आया करता है, जिसे हम अनेक बार प्रयागादि तीर्थोंमें देखा करते हैं। कुम्भ उस समयको कहते हैं जो महान् आकाशमें ग्रह-राशि आदिके योगसे होता है।'
और भी कहा है-

(क) 'चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि।' (अथर्व० ४।३४।७) ब्रह्मा कहते हैं- 'हे मनुष्यो। मैं तुम्हें ऐहिक तथा आमुष्मिक सुखींको देनेवाले चार कुम्भ-पर्वोका निर्माण कर चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक) में प्रदान करता हूँ।' (

ख) 'कुम्भीका दूषीकाः पीयकान्।' (अथर्व० १६।६।८)

 अमृत-कुम्भ की अवधारणा

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वर्तमान समयमें भी वसुधाके ओर-छोरतक किसी-न-किसी रूपमें अखिलकोटिब्रह्माण्डनायक उस परम प्रभुकी व्यापक शासन-शक्ति धर्मरूपसे निर्बाध दृष्टिगोचर हो रही है। वर्णाश्रमियोंकी सुदृढ़ताका ही फल है कि परमपिता परमेश्वर भी सदेह धरातलपर अवतीर्ण होकर सज्जन, साधु-रक्षा एवं दुष्टोंका संहार कर पृथ्वीका भार हलका करनेमें अग्रसर होते हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं परित्राणाय साधूनां विनाशाय च धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि सृजाम्यहम् ॥ दुष्कृताम्। युगे युगे ॥

(गीता ४।७-८) नाना प्रकारके पर्वोका सर्जन भी धार्मिक विज्ञानोंद्वारा ही हुआ था। सबके मूलमें कोई-न-कोई अलौकिक विशेषता विद्यमान रहती है जिसे विचारशील ही समझ पाते हैं। इन्हीं महापर्वोंमें कुम्भ-पर्व भी है जो कि भारतके हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार स्थानोंमें मनाया जाता है।

वैसे 'कुम्भ' शब्दका अर्थ साधारणतः घड़ा ही है, किन्तु इसके पीछे जनसमुदायमें पात्रताके निर्माणकी रचनात्मक शुभभावना, मंगलकामना एवं जन-मानसके उद्धारकी प्रेरणा निहित है। यथार्थतः 'कुम्भ' शब्द समग्र सृष्टिके कल्याणकारी अर्थको अपने- आपमें समेटे हुए है-

कुं पृथ्वीं भावयन्ति संकेतयन्ति भविष्यत्कल्याणादिकाय महत्याकाशे स्थिताः बृहस्पत्यादयो ग्रहाः संयुज्य हरिद्वारप्रयागादितत्तत्पुण्यस्थान- विशेषानुद्दिश्य यस्मिन् सः कुम्भः ।

'पृथ्वीको कल्याणकी आगामी सूचना देनेके लिये या शुभ भविष्यके संकेतके लिये हरिद्वार, प्रयाग आदि पुण्य-स्थानविशेषके उद्देश्यसे निर्मल महाकाशमें बृहस्पति आदि ग्रहराशि उपस्थित हों जिसमें, उसे 'कुम्भ' कहते हैं।'

इसके अतिरिक्त अन्यान्य जन-कल्याणकारी भावोंको भी 'कुम्भ' शब्दके शब्दार्थमें देखा जा सकता है।

पुराणोंमें कुम्भ-पर्वकी स्थापना बारहकी संख्यामें की गयी है, जिनमेंसे चार मृत्युलोकके लिये और आठ देवलोकोंके लिये हैं-

देवानां जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया ।। पापापनुत्तये नृणां चत्वारि भुवि भारते। अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरैः ॥

द्वादशाहोभिर्मत्यैर्द्वादशवत्सरैः ।

भूमण्डलके मनुष्यमात्रके पापको दूर करना ही कुम्भकी उत्पत्तिका हेतु है। यह पर्व प्रत्येक बारहवें वर्ष हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक - इन चारों स्थानोंमें होता रहता है। इन पर्वोंमें भारतके सभी प्रान्तोंसे समस्त सम्प्रदायवादी स्नान, ध्यान, पूजा-पाठादि करनेके लिये आते हैं।

क्षार-समुद्रसे पर्यवेष्टित भारतभूमि स्वभावतः मलिनताके कलंक- पंकसे युक्त है। यह पुण्यप्रक्षालित भूमि है। भौगोलिक दृष्टिसे इसके चार पवित्र स्थानोंमें उस अमृत-कुम्भकी प्रतिष्ठा हुई थी, जो उस समुद्र-मन्थनसे उद्भूत हुआ था।

कालिक दृष्टिसे ऐसे ग्रहयोग जो खगोलमें लुप्त-सुप्त अमृतत्वको प्रत्यक्ष और प्रबुद्ध कर देते हैं, चारों स्थानोंमें बारह-बारह वर्षपर अर्थात् द्वादश वर्षात्मक कालयोगसे प्रकट होते हैं। तब गंगा (हरिद्वार), त्रिवेणीजी (प्रयाग), शिप्रा (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक) - ये पतितपावनी नदियाँ अपनी जलधारामें अमृतत्वको प्रवाहित करती हैं। अर्थात् देश, काल एवं वस्तु तीनों अमृतके प्रादुर्भावके योग्य हो जाते हैं। फलस्वरूप अमृतघट या कुम्भका अवतरण होता है।

कालचक्र न केवल जीवनके क्रिया-कलापका मूलाधार है; अपितु समस्त यज्ञकर्म, अनुष्ठान एवं संस्कार आदि भी कालचक्रपर आधारित हैं। कालचक्रमें सूर्य, चन्द्रमा एवं देवगुरु बृहस्पतिका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन तीनोंका योग ही कुम्भ-पर्वका प्रमुख आधार है। जब बृहस्पति मेष राशिपर तथा चन्द्रमा सूर्य मकर राशिपर स्थित हों तब प्रयागमें अमावास्या तिथिको अति दुर्लभ कुम्भ होता है। इस स्थितिमें सभी ग्रह मित्रतापूर्ण और श्रेष्ठ होते हैं। हमारे जीवनमें जब मित्र और श्रेष्ठजनोंका मिलन होता है तभी श्रेष्ठ एवं शुभ विचारोंका उदय होता है और हमारे जीवनमें यह योग ही सुखदायक होता है।

कुम्भके अवसरपर भारतीय संस्कृति और धर्मसे अनुप्राणित सभी सम्प्रदायोंके धर्मानुयायी एकत्रित होकर अपने समाज, धर्म एवं राष्ट्रकी एकता, अखण्डता, अक्षुण्णताके लिये विचार-विमर्श करते हैं। स्नान, दान, तर्पण तथा यज्ञका पवित्र वातावरण देवताओंको भी आकृष्ट किये बिना नहीं रहता। ऐसी मान्यता है कि इस महापर्वपर सभी देवगण तथा अन्य पितर-यक्ष-गन्धर्व आदि पृथ्वीपर उपस्थित होकर न केवल मनुष्यमात्र, अपितु जीवमात्रको अपनी पावन उपस्थितिसे पवित्र करते रहते हैं।

अमृत-कुम्भका स्वरूप एवं प्रार्थना-मन्त्र

कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः ।

मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्थिताः ॥

कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।

ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो

ह्यथर्वणः ॥

समाश्रिताः । अङ्गैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु

'कलशके मुखमें विष्णु, कण्ठमें रुद्र, मूल भागमें ब्रह्मा, मध्य भागमें मातृगण, कुक्षिमें समस्त समुद्र, पहाड़ और पृथ्वी रहते हैं और अंगोंके सहित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद भी रहते हैं।'

देवदानवसंवादे

मध्यमाने महोदधौ । उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम् ॥
त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः ।

त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः ।।

शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः।

आदित्या वसवो रुद्रा त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः ।।

विश्वेदेवाः सपैतृकाः ॥

'हे कुम्भ ! देव-दानवके विवादरूपमें समुद्रके मथे जानेपर तुम्हारी उत्पत्ति हुई, जिसे साक्षात् भगवान् विष्णुने धारण किया। उस तुम्हारे जलमें समस्त तीर्थ, समस्त देवता, समस्त प्राणी, प्राण आदि स्थित रहते हैं। । तुम साक्षात् शिव, विष्णु और ब्रह्मा हो। आदित्य, वसु, रुद्र, सपैतृक विश्वेदेव आदि समस्त कार्योंके फलप्रद देवता तुम्हारेमें सर्वदा स्थित रहते हैं।'
कुम्भोत्पत्ति

एक समयकी बात है, दैत्यों और दानवोंने बड़ी भारी सेना लेकर देवताओंपर चढ़ाई की। उस युद्धमें दैत्योंके सामने देवता परास्त हो गये, तब इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्निको आगे करके ब्रह्माजीकी शरणमें गये। वहाँ उन्होंने अपना सारा हाल ठीक-ठीक कह सुनाया। ब्रह्माजीने कहा- 'तुमलोग मेरे साथ भगवान्‌की शरणमें चलो।' यह कहकर वे सम्पूर्ण देवताओंको साथ ले क्षीरसागरके उत्तर-तटपर गये और भगवान् वासुदेवको सम्बोधित करके बोले- 'विष्णो ! शीघ्र उठिये और इन देवताओंका कल्याण कीजिये। आपकी सहायता न मिलनेसे दानव इन्हें बारम्बार परास्त करते हैं।'

 उनके ऐसा कहनेपर कमलके समान नेत्रवाले भगवान् अन्तर्यामी पुरुषोत्तमने देवताओंके शरीरकी अवस्था देखकर कहा-'देवगण ! मैं तुम्हारे तेजकी वृद्धि करूँगा। मैं जो उपाय बतलाता हूँ, उसे तुमलोग करो। दैत्योंके साथ मिलकर सब प्रकारकी ओषधियाँ ले आओ और उन्हें क्षीरसागरमें डाल दो। फिर मन्दराचलको मथानी और वासुकि नागको नेती (रस्सी) बनाकर समुद्रका मन्थन करते हुए उससे अमृत निकालो।

इस कार्यमें मैं तुमलोगोंकी सहायता करूँगा। समुद्रका मन्थन करनेपर जो अमृत निकलेगा, उसका पान करनेसे तुमलोग बलवान् और अमर हो जाओगे।'
देवाधिदेव भगवान्के ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता दैत्योंके साथ सन्धि करके अमृत निकालनेके यत्नमें लग गये-

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि कलशोत्पत्तिमुत्तमाम् ।

उत्तरे हिमवत्पार्श्व क्षीरोदो नाम सागरः ।।

आरब्धं मन्थनं तत्र देवैर्दानवपूर्वकैः ।

मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम् ॥

मूले कूर्मन्तु संस्थाप्य विष्णोर्बाहू च मन्दरे।

एकत्र देवताः सर्वे बलिमुख्यास्तथैकतः ।।

मध्यमाने तदा तस्मिन् क्षीरोदे सागरोत्तमे।

उत्पन्नं गरलं पूर्व शम्भुना भक्षितं च तत् ॥

अथ स्वास्थ्यं गते लोके प्रकथ्यन्तेऽद्य तानि हि।

उत्पन्नानि च रत्नानि यानि तत्र महान्ति च ॥

विमानं पुष्पकं पूर्वमुत्तमं हंसवाहनम् ।

नाग ऐरावतश्चैव पादपः पारिजातकः ॥

वीणावाद्यान्तरं चैव रम्भा नृत्यगुणान्विता ।

मणिरत्नं कौस्तुभाख्यं बालचन्द्रस्तथैव च॥

कुण्डलानि धनुश्चैव गावः पञ्च शिवास्तथा।

लक्ष्मीः सुरूपा यमुना सुशीला सुरभिस्तथा ॥

उच्चैःश्रवाः समुत्पन्नो लक्ष्मीश्च वरवर्णिनी।

तथा धन्वन्तरिर्देवो विश्वकर्मा कलाविदः ॥

कलशश्च समुद्भूतो धन्वन्तरिकरोल्लसन् ।

मुखान्तं सुधया पूर्णः सर्वेषां हि मनोहरः ॥

अजितस्य पदाम्भोजकृपयैव समुद्रगतम् ।

क्षीराब्धिलोडनोद्भूतं कलशान्तेन्द्ररत्नकम् ॥

दृष्ट्वा तु तत्क्षणादेव महाबलपराक्रमः ।

जयन्तोऽमृतमादाय गतो देवप्रचोदितः ।।

देवकर्मसमालोच्य तदा दैत्यपुरोधसा।

नागोच्छ्‌वासप्रव्यथिता दैत्याः शुक्रेण सूचिताः ॥

जग्मुस्ते पृष्ठतो लग्ना भीतः सोऽपि पलायितः ।

दिशो दश दिवारात्रं द्वादशाहं प्रपीडितः ॥

दैत्यैगृहीतस्तद्धस्तात् तेनापि पुनरेव सः। अहं पिबेयं पूर्व तु न त्वञ्चेति विचुक्रुधुः ॥

एवं काश्यपेषु विवदमानेषु सुधाग्रहे। भगवान् मोहयित्वा तान् मोहिन्या विभजत् सुधाम् ॥

विवादे यत्र काश्यपेयानां यत्रावनिस्थले। तदोच्यते ॥ कलहाक्रान्तचेतोभिर्दैत्यैः शुक्रप्रचोदितैः ॥ चन्द्रः प्रस्त्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ । दैत्येभ्यश्च गुरू रक्षां शौरिदेवेन्द्रजाद् भयात् ॥ देवानां द्वादशाहोभिर्मत्यैर्द्वादशवत्सरैः ।

कलशो न्यपतत्तत्र कुम्भपर्व निपातितः । गुर्वीन्द्वर्कस्वपुत्रैश्च कुम्भोऽरक्षि

सूर्येन्दुगुरुसंयोगस्तद्राशौ यत्र वत्सरे। सुधाकुम्भप्लवे भूमौ कुम्भो भवति नान्यथा ॥

जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया ॥

तत्राघनुत्तये नृणां चत्वारो भुवि भारते।

अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरैः ॥

कल्पते। तान्येति यः पुमान् योगे सोऽमृतत्वाय देवा नमन्ति तत्रस्थान् यथा रङ्का धनाधिपान् ॥ पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते ।

विष्णुद्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां सुधाविन्दुविनिक्षेपात् कुम्भपर्वेति गोदावरीतटे ॥ विश्रुतम् ॥

(स्कन्दपुराण)

'तत्पश्चात् देवता और दानवोंने पृथ्वीके उत्तर भागमें हिमालयके समीप क्षीरोदसिन्धुमें मन्थन किया, जिसमें मन्दराचल 'मन्थनदण्ड' था, वासुकी 'नेती' थे, कच्छपरूपधारी भगवान् मन्दराचलके पृष्ठभाग थे और भगवान् विष्णु उक्त मन्थन-दण्डको पकड़े हुए थे, तदनन्तर उस क्षीरसागरसे चौदह रत्न-लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि, चन्द्रमा, गरल, पुष्पक, ऐरावत, पांचजन्य शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैःश्रवा और अमृत-कुम्भ निकले। उन्हीं रत्नोंमेंसे अमृत-कुम्भके निकलते ही देवताओंके इशारे से इन्द्रपुत्र 'जयन्त' अमृत कलशको लेकर आकाशमें उड़ गया।

उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्यके आदेशानुसार दैत्योंने अमृतको वापस लेनेके लिये जयन्तका पीछा किया और घोर परिश्रमके बाद उन्होंने बीच रास्तेमें ही जयन्तको पकड़ा। तत्पश्चात् अमृत कलशपर अधिकार जमानेके लिये देव-दानवोंमें बारह दिनतक अविराम युद्ध होता रहा।

परस्पर इस मार-काटके समयमें पृथिवीके चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश गिरा था, उस समय चन्द्रमाने घटसे प्रस्त्रवण होनेसे, सूर्यने घट फूटनेसे, गुरुने दैत्योंके अपहरणसे एवं शनिने देवेन्द्रके भयसे घटकी रक्षा की। कलह शान्त करनेके लिये भगवान्ने मोहिनीरूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव-युद्धका अन्त किया गया।

अमृत-प्राप्तिके लिये देव-दानवोंमें परस्पर बारह दिनपर्यन्त निरन्तर युद्ध हुआ था। देवताओंके बारह दिन मनुष्योंके बारह वर्षके तुल्य होते हैं। अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमेंसे चार कुम्भ पृथ्वीपर होते हैं और अवशिष्ट आठ कुम्भ देवलोकमें होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्योंकी वहाँ पहुँच नहीं है।

जिस समयमें चन्द्रादिकोंने कलशकी रक्षा की थी, उस समयकी वर्तमान राशियोंपर रक्षा करनेवाले चन्द्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भका योग होता है अर्थात् जिस वर्ष, जिस राशिपर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पतिका संयोग होता है उसी वर्ष, उसी राशिके योगमें जहाँ-जहाँ अमृत-कुम्भ-सुधा-विन्दु गिरा था, वहाँ-वहाँ कुम्भ-पर्व होता है।'

कुम्भ-पर्व के आद्यप्रवर्तक शंकराचार्य

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जिस कुम्भ-पर्वका उल्लेख वेदों और पुराणोंमें मिलता है, उसकी प्राचीनताके सम्बन्धमें तो किसीको संदेह होनेका अवसर ही नहीं है। किन्तु यह बात अवश्य विचारणीय है कि कुम्भ-मेलेका धार्मिक रूपमें प्रसार करनेका श्रीगणेश किसने किया ? इस विषयमें बहुत अन्वेषण करनेपर सिद्ध होता है कि कुम्भ मेलेको प्रवर्तित करनेवाले भगवान् शंकराचार्य हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने कुम्भ-पर्वके प्रचारकी व्यवस्था केवल धार्मिक संस्कृतिको सुदृढ़ करनेके लिये किया था।

उन्हींके आदर्शानुसार आज भी कुम्भ-पर्वके चारों सुप्रसिद्ध तीर्थोंमें सभी सम्प्रदायोंके साधु-महात्मागण देश-काल-परिस्थितिके अनुरूप लोक- कल्याणकी दृष्टिसे धर्मका प्रचार करते हैं, जिससे समस्त मानव- समाजका कल्याण होता है।

भगवान् शंकराचार्यजीके कुम्भ-प्रवर्तक होनेके कारण ही आज भी कुम्भ-पर्वका मेला मुख्यतः साधुओंका ही माना जाता है। वस्तुतः साधु- मण्डली ही कुम्भका जीवन है। भगवान् शंकराचार्यने जिस महान् उद्देश्यकी पूर्तिके लिये कुम्भ-पर्वको प्रवर्तित किया था, आज उसमें जो आवश्यकतासे अधिक कमी आ गयी है, वह किसीसे छिपी नहीं है।

आज प्रत्येक गृहस्थ एवं साधु-महात्माओंको चाहिये कि पुनः भगवान् शंकराचार्यजीके सदुद्देश्यकी पूर्तिमें मनसा, वाचा प्रवृत्त होकर अपना और देशका कल्याण कर कुम्भ-पर्वके महत्त्वको सुरक्षित रखें।

कुम्भ(प्रतिवर्ष), अर्धकुम्भ(छह वर्ष में),  पूर्णकुम्भ(12 वर्ष में) और महाकुम्भ(144 वर्ष में) की अवधारणा

सनातन समाज में प्राचीन कालसे ही कुम्भ-पर्व मनाने की पद्धति चली आ रही है। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चारों स्थानोंमें क्रमशः बारह-बारह वर्षपर पूर्णकुम्भका मेला लगता है, जबकि हरिद्वार तथा प्रयागमें अर्धकुम्भ-पर्व भी मनाया जाता है; किन्तु यह अर्धकुम्भ-पर्व उज्जैन और नासिकमें नहीं होता।

अर्धकुम्भ-पर्वके प्रारम्भ होनेके सम्बन्धमें कुछ लोगोंका विचार है कि मुगल-साम्राज्यमें हिन्दू-धर्मपर जब अधिक कुठाराघात होने लगा उस समय चारों दिशाओंके शंकराचार्योंने हिन्दू-धर्मकी रक्षाके लिये हरिद्वार एवं प्रयागमें साधु-महात्माओं एवं बड़े-बड़े विद्वानोंको बुलाकर विचार-विमर्श किया था, तभीसे हरिद्वार और प्रयागमें अर्धकुम्भ-मेला होने लगा। शास्त्रोंमें जहाँ कुम्भ-पर्वकी चर्चा प्राप्त है, वहाँ पूर्णकुम्भका ही उल्लेख मिलता है-

पूर्णः कुम्भोऽधि काल अहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः। स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥

(अथर्ववेद १९। ५३ । ३)

'हे सन्तगण ! पूर्णकुम्भ बारह वर्षके बाद आता है, जिसे हम अनेक बार हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार तीर्थस्थानोंमें देखा करते हैं। कुम्भ उस कालविशेषको कहते हैं, जो महान् आकाशमें ग्रह- राशि आदिके योगसे होता है।'

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हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक- इन चारों स्थानोंमें प्रत्येक बारहवें वर्षमें कुम्भ पड़ता है। किन्तु इन चारों स्थानोंके कुम्भ-पर्वका क्रम इस प्रकार निर्धारित है, मेष या वृषके बृहस्पतिमें जब सूर्य, चन्द्रमा दोनों मकर राशिपर आते हैं तब प्रयागमें कुम्भ-पर्व होता है। इसके पश्चात् वर्षोंका अन्तराल जो भी हो, जब बृहस्पति सिंहमें होते हैं और सूर्य मेष राशिपर रहता है तो उज्जैनमें कुम्भ लगता है।

उसी बार्हस्पत्य वर्षमें जब सूर्य सिंहपर रहता है तो नासिकमें कुम्भ लगता है। तत्पश्चात् लगभग छः बार्हस्पत्य वर्षोंके अन्तरालपर जब बृहस्पति कुम्भ राशिपर रहता है और सूर्य मेषपर तब हरिद्वारमें कुम्भ होता है। इनके मध्यमें छः-छः वर्षके अन्तरसे केवल हरिद्वार और प्रयागमें अर्धकुम्भ होता है।

यथार्थतः पूर्वाचार्योद्वारा स्थापित अर्धकुम्भ-पर्वका माहात्म्य अपार है; क्योंकि अर्धकुम्भ-पर्वका उद्देश्य पूर्णकुम्भकी तरह विशेष पवित्र और लोकोपकारक है। लोकोपकारक पर्वोंसे धर्मके प्रचारके साथ-साथ देश और समाजका महान् कल्याण सुनिश्चित है। कुम्भका पर्व हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार तीर्थस्थानोंमें मनाया जाता है। ये चारों ही एकसे बढ़कर एक परम पवित्र तीर्थ हैं। इन चारों तीर्थोंमें प्रत्येक बारह वर्षके बाद कुम्भ-पर्व होता है-

गंगाद्वारे प्रयागे च कुम्भाख्येयस्तु योगोऽयं प्रोच्यते शङ्करादिभिः ॥ धारागोदावरीतटे ।

'गंगाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग, धारानगरी (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक)- में शंकरादि देवगणने 'कुम्भयोग' कहा है।'

कुम्भ भगवान्‌का मंदिर है। इसकी झाँकी उक्त चारों स्थानोंमें प्रत्येक बारहवें वर्षमें होती है।

 प्रयाग

मेषराशिं गते जीवे अमावास्या तदा योगः मकरे चन्द्रभास्करौ। कुम्भाख्यस्तीर्थनायके ॥

(स्कन्दपुराण)

'जिस समय बृहस्पति मेष राशिपर स्थित हो तथा चन्द्रमा और सूर्य मकर राशिपर हो तो उस समय तीर्थराज प्रयागमें कुम्भ-योग होता है।'
अथवा

मकरे च दिवानाथे ह्यजगे च बृहस्पतौ। कुम्भयोगो भवेत्तत्र प्रयागे ह्यतिदुर्लभः ।।

प्रयागमें कुम्भके तीन स्नान होते हैं। यहाँ कुम्भका प्रथम स्नान मकरसंक्रान्ति (मेष राशिपर बृहस्पतिका संयोग होने) से प्रारम्भ होता है। द्वितीय स्नान (प्रधान स्नान) माघ कृष्णा मौनी अमावास्याको होता है। तृतीय स्नान माघ शुक्ला वसन्तपंचमीको होता है।

कुम्भ-पर्वका माहात्म्य

हिन्दू-धर्मशास्त्र कुम्भ-पर्वकी महिमासे भरे पड़े हैं। स्कन्दपुराणका वचन है-

तान्येव यः पुमान् योगे सोऽमृतत्वाय कल्पते। देवा नमन्ति तत्रस्थान् यथा रङ्का धनाधिपान् ।।

(स्कन्दपुराण)

'जो मनुष्य कुम्भ-योगमें स्नान करता है, वह अमृतत्व (मुक्ति)-की प्राप्ति करता है। जिस प्रकार दरिद्र मनुष्य सम्पत्तिशालीको नम्रतासे अभिवादन करता है, उसी प्रकार कुम्भ-पर्वमें स्नान करनेवाले मनुष्यको देवगण नमस्कार करते हैं।'

 प्रयाग-स्नानकी महिमा

सहस्रं कार्तिके स्नानं माघे स्नानशतानि च। वैशाखे नर्मदा कोटिः कुम्भस्नानेन तत्फलम् ॥

(स्कन्दपुराण)

'कार्तिक महीनेमें एक हजार बार गंगामें स्नान करनेसे, माघमें सौ बार गंगामें स्नान करनेसे और वैशाखमें करोड़ बार नर्मदामें स्नान करनेसे जो फल होता है, वह प्रयागमें कुम्भ-पर्वपर केवल एक ही बार स्नान करनेसे प्राप्त होता है।'

विष्णुपुराणमें भी कहा गया है-

अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च। लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत्फलम् ॥
हजार अश्वमेध यज्ञ करनेसे, सौ वाजपेय-यज्ञ करनेसे और लाख बार पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह फल केवल प्रयागके कुम्भके स्नानसे प्राप्त होता है।'

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