एक था ऐसा पत्ता,
हर पल यह सोचता रहता l
मैं हूँ इतना हरा- भरा,
फिर कैसे गिर जाऊंगाl
इस घमंड में झूम-झूम कर,
समय चक्र से अज्ञ रहा l
डाली ने लिया जब हाथ छुड़ा,
हुई योजना उसकी धूमिल l
हवा की उन तूफानी लहरों में,
अपना वजूद सब भूल गया l
अटल सत्य का ज्ञान था,
उससे वह बिल्कुल अनजान रहा l
समय रहते सोच ना पाया,
घमंड में वह झूमता रहा l
धरा पर गिरते ही मानो,
उसका वहम सब टूट गया,
जिससे अभी तक अनभिज्ञ रहा l
