दुनिया के ऐसे देश जिनका नाम कही दर्ज नहीं

Authored By: News Corridors Desk | 23 Sep 2025, 08:58 PM
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नाम है, झंडा है, सरकार है,  बस नक्शे पर जगह नहीं आज मांग उठ रही है कि जिस देश का जैसा नाम है, वैसी ही उसे नक्शे पर पहचान भी मिले। आखिर कब तक ऐसे देश सिर्फ अपनी सरहदों में सिमटे रहेंगे, जिनकी दुनिया में कोई मान्यता ही नहीं?

सोमालीलैंड, जहाँ 30 साल से लोकतंत्र है, सेना है, चुनाव होते हैं, फिर भी दुनिया कहती है: "तुम अभी देश नहीं हो"। ताइवान, जो पूरी दुनिया को मोबाइल चिप्स बेचता है, लेकिन खुद को अब तक "पूरा देश" नहीं कह सकता। कोसोवो, जिसे सौ के करीब देशों ने माना, लेकिन फिर भी यूएन में उसकी कुर्सी खाली है।
और सहारा अरब डेमोक्रेटिक रिपब्लिक, नागोर्नो-कराबाख, ट्रांसनिस्ट्रिया सबकी पहचान अधूरी है।
नाम सबके पास है, पर नक्शे में ठिकाना किसी का नहीं। 

अफगानिस्तान की नई सरकार को तो मान्यता मिल गई, लेकिन ये देश कब तक दरवाज़े पर दस्तक देते रहेंगे?
क्या सच में किसी की आज़ादी, किसी और की मंजूरी पर टिकी होनी चाहिए?
आपका क्या मानना है? क्या जो खुद को देश मानता है, उसे नक्शे पर जगह नहीं मिलनी चाहिए? 

फिलहाल फिलिस्तीन लगातार इंटरनेशनल सुर्खियों में तो है। वजह? दुनिया के कई देश अब उसे एक 'आज़ाद देश' के तौर पर मान्यता दे रहे हैं। आयरलैंड, स्पेन और नॉर्वे जैसे यूरोपीय देशों ने हाल ही में फिलिस्तीन को आधिकारिक मान्यता दी है। ये सिर्फ कूटनीति नहीं, बल्कि एक बड़ा राजनीतिक संदेश भी है – खासकर इजरायल के खिलाफ। मगर सवाल ये भी उठता है कि जब कई ऐसे देश हैं जिन्हें अब तक मान्यता नहीं मिली – जैसे ताइवान या सोमालीलैंड – तो फिलिस्तीन को ये सपोर्ट क्यों और कैसे मिल रहा है? इसका जवाब छुपा है जियोपॉलिटिक्स और इंसानी अधिकारों के उस संघर्ष में, जो दशकों से चला आ रहा है।

दुनिया के देशों के आपसी रिश्तों (जियोपॉलिटिक्स) और इंसानों के हक़ के बीच टकराव कई सालों से चला आ रहा है। कई बार ऐसा होता है कि किसी जगह के लोगों को आज़ादी तो चाहिए होती है, लेकिन इंटरनेशनल नियमों की वजह से उनकी बात को नजरअंदाज कर दिया जाता है। सोमालीलैंड इसका एक बड़ा उदाहरण है।

सोमालीलैंड को ही देख लो।
1991 में खुद को सोमालिया से अलग घोषित किया। तब से चुनाव हो रहे हैं, लोकतांत्रिक सरकार है, कानून चलता है, खुद की सेना है। पर आज तक कोई बड़ा देश उन्हें आज़ाद देश नहीं मानता।
क्यों?
क्योंकि अफ्रीकन यूनियन का कहना है -
अगर एक को आज़ादी दी, तो दूसरे 10 और मांग करेंगे। फिर अफ्रीका बिखर जाएगा।
सोमालीलैंड को मानेंगे तो फिर नाइजर, सहेल, कांगो जैसे और देश भी बोलेंगे कि हमें भी अलग होना है।
इसलिए दुनिया चुप है।
और ना मदद मिलती है, ना पैसा, ना सपोर्ट। इकॉनमी गिर चुकी है, और अब फिर से हिंसा लौट आई है।
इसकी वजह है अफ्रीकन यूनियन की सख्त सोच। उनका मानना है कि अगर हर इलाका खुद को अलग देश बना ले, तो अफ्रीका के देशों में आपसी एकता (यूनिटी) खत्म हो जाएगी और झगड़े बढ़ जाएंगे।

अब बात करते हैं ताइवान की।


एक ऐसा छोटा सा द्वीप, लेकिन दुनिया की टेक्नोलॉजी का दिल वहीं धड़कता है।
मोबाइल फोन, लैपटॉप, कार, टीवी, रोबोट जितनी भी स्मार्ट डिवाइसेज हैं, उनमें जो माइक्रोचिप लगती है, वो ज़्यादातर
ताइवान से आती है।
दुनिया की सबसे बड़ी चिप बनाने वाली कंपनी TSMC भी वहीं है।
इसके बावजूद, ताइवान आज भी कह नहीं सकता कि "हम एक आज़ाद देश हैं" क्योंकि दुनिया उसे पूरी मान्यता नहीं देती।
और वजह वही - चीन से पंगा कौन ले?

लेकिन भारत, रूस, चीन जैसे बड़े देश अब भी इसे स्वीकार नहीं करते।
पकड़ सकते हैं। इसलिए वे इसे पूरी तरह से मानने से बचते हैं।

कोसोवो ने सर्बिया से अलग होकर अपनी अलग पहचान बनाई। करीब 100 देशों ने इसे एक नया देश माना है। क्यों? क्योंकि अगर कोसोवो को मान लिया गया, तो उनके अपने देश के अंदर भी कई छोटे-छोटे अलगाववादी आंदोलन ज़ोर
अब बात करते हैं सहारा अरब डेमोक्रेटिक रिपब्लिक की।
यह इलाका मोरक्को से अलग होना चाहता है और कुछ अफ्रीकी देशों ने इसे मान्यता भी दी है।
लेकिन ज़्यादातर देश इसे अब भी एक विवादित और अस्थिर इलाका ही समझते हैं।
फिर है नागोनों-कराबाख एक छोटा सा इलाका जो आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच फंसा हुआ है।
यहां के लोग अपनी आज़ादी चाहते हैं, लेकिन दो पड़ोसी देशों के बीच लगातार झगड़े चलते रहते हैं और शांति दूर-दूर तक नहीं दिखती।
इसके अलावा, ट्रांसनिस्ट्रिया, अबखाज़िया और दक्षिण ओसेशिया जैसे नाम भी हैं।
ये छोटे-छोटे इलाके हैं जिनकी अपनी सरकार, अपना संविधान और झंडा है, लेकिन फिर भी दुनिया उन्हें आधिकारिक देश नहीं मानती।

क्या आपको लगता है कि हर इलाके को अपनी पहचान मिलनी चाहिए, या कुछ मामलों में समझौता करना बेहतर होता है?