वृंदावन वाले संत प्रेमानंदजी महाराज को भला कौन नहीं जानता है। प्रेमानंदजी महाराज हमेशा चर्चा में रहते है। उनके प्रवचन सोशल मीडिया पर काफी वायरल होते रहते है। प्रेमांनद जी महाराज की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई है। उनके भजन और सत्संग में दूर-दूर से लोग आते हैं। क्या आप जानते हैं कि, प्रेमानंद जी महाराज ने क्यों साधारण जीवन का त्याग कर भक्ति का मार्ग चुना और संन्यासी कैसे बन गए? आइये जानते हैं प्रेमानंद जी महाराज के जीवन के बारे में सबकुछ...
अनिरुद्ध पांडे से कैसे बन गए प्रेमानंद जी महाराज
ऐसा कहा जाता है कि भोलेनाथ ने स्वयं प्रेमानंद जी महाराज को दर्शन दिए। इसके बाद वह घर का त्याग कर वृंदावन आ गए। वृंदावन में उनका आश्रम है, जहां उनके दर्शनों के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। आपको बता दें कि प्रेमानंद जी के बचपन का नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे है। प्रेमानंद जी महाराज का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम शंभू पांडे और माता का नाम रामा देवी हैं। प्रेमानंद जी के परिवार में भक्तिभाव का माहौल था और इसी का प्रभाव उनके जीवन पर भी पड़ा। उनका पूरा परिवार शुरू से ही आध्यात्मिक प्रवृति का था। सबसे पहले उनके दादाजी ने भक्तिभाव में संन्यास लिया। फिर उनके पिता और भाई भी भक्तिभाव में लीन रहते थे और रोजाना भागवतगीता का पाठ किया करते थे।
प्रेमानंद जी महाराज बताते हैं कि, जब वे 5वीं कक्षा में थे, तभी से गीता का पाठ शुरू कर दिया और इस तरह से धीरे-धीरे उनकी रुचि आध्यात्म की ओर बढ़ने लगी। जब वे 13 वर्ष के हुए तो उन्होंने ब्रह्मचारी बनने का फैसला किया और इसके बाद वे घर का त्याग कर संन्यासी बन गए। संन्याली जीवन की शुरुआत में उनका नाम अनिरुद्ध पांडे से बदलकर आर्यन ब्रह्मचारी हो गया।
संन्यासी जीवन में किया कठिनाइयों का सामना
प्रेमानंद महाराज बताते हैं कि उनके संन्यास का शुरुआती दौर कठिनाइयों में बीता। वो कानपुर वाले अपने घर को त्यागकर वाराणसी में आकर रहने लगे। महाराज जी प्रतिदिन 3 बार गंगा स्नान करते थे और फिर वहीं तुलसी घाट पर बैठकर भगवान शिव और मां गंगा का ध्यान करते थे। पूजा के बाद वो भिक्षा मांगने निकल जाते थे। लेकिन उनका नियम था कि वे भिक्षा मांगने के लिए मंदिर के बाहर केवल 15 मिनट ही बैठते थे। अगर इस अंतराल में उन्हें भिक्षा मिल जाती तो वे भोजन कर लेते वरना उस दिन गंगाजल पीकर ही रह जाते थे।
वाराणसी से कैसे पहुंचे वृंदावन?
प्रेमानंद महाराज जी के वाराणसी से वृंदावन आने की कहानी बेहद चमत्कारी है। महाराज जी बताते हैं कि एक दिन एक अनजान साधु ने उन्हें श्री हनुमत धाम विश्वविद्यालय में श्री चैतन्य लीला और रात में रासलीला देखने का निमंत्रण दिया। पहले तो प्रेमानंद महाराज ने जाने से इनकार कर दिया लेकिन जब साधु ने बार-बार आग्रह किया तो वे मान गए। प्रेमानंद जी महाराज जब चैतन्य लीला और रासलीला देखने गए तो उन्हें आयोजन बहुत पसंद आया। चैतन्य लीला और रासलीला का आयोजन खत्म होने के बाद प्रेमानंद महाराज को फिर से चैतन्य लीला देखने का मन करने लगा। उन्होंने फिर से साधु से वैसा ही आयोजन दिखाने का आग्रह किया। तब ने साधु ने कहा कि वह लीला तो एक महीने की ही थी, अब समाप्त हो गई। यदि आप रोजाना भगवान कृष्ण की लीला देखना चाहते हैं तो वृंदावन चले जाइए। वहां पर रोजाना ऐसी लीलाएं देखने को मिलेंगी।
उस साधु की बात से प्रेरित होकर आर्यन ब्रह्मचारी वृंदावन आ गए। यहां आकर वे राधा वल्लभ संप्रदाय से जुड़े और फिर इन्हीं के होकर रह गए। इसी के साथ उनका नाम भी बदलकर प्रेमानंद महाराज हो गया। अब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी की आराधना में अपना जीवन समर्पित कर दिया है और वो उन्हीं की भक्ति में खोये रहते हैं।