गोरक्षपीठ के महंत के गाल पर पड़ा थप्पड़...और शहर का बदल गया मिज़ाज

Authored By: News Corridors Desk | 27 Apr 2025, 12:13 PM
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ये दास्तान यूँ तो शुरू होती है आज़ादी से बहुत पहले…लेकिन इससे जुड़ता है देश का सबसे सनसनीख़ेज़ हत्याकांड । 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में जब महात्मा गांधी की हत्या की खबर आई तो पूरा देश सन्न रह गया ।  हत्या के आरोप में नाथूराम गोडसे को गिरफ्तार किया गया । लेकिन हलचल सिर्फ़ दिल्ली तक सीमित नहीं रही । इस हत्याकांड के बाद गोरखपुर के गोरक्षपीठ में भी खलबली मच गई थी । 

गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजय नाथ को भी गांधी की हत्या की साज़िश के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था । हालाँकि कोई सबूत नहीं मिला । ये साबित नहीं हो पाया कि दिग्विजय नाथ इस साज़िश में शामिल थे , लिहाजा 9 महीने बाद उन्हें रिहा कर दिया गया । 

 दिग्विजय नाथ का गोरखपुर में पहले ही कम दबदबा नहीं था । इस रिहाई के बाद उनका क़द और बढ़ गया । वो शहर जिसकी पहचान ही गोरक्षपीठ से जुड़ी हो, उसके महंत का रूतबा और रौब कैसा रहा होगा ये आप सोच सकते हैं ।  दिग्विजय नाथ के अक्खड़ तेवरों से लोग डरते थे और महंत की पदवी की वजह से उनका बहुत सम्मान भी करते थे । 

संदीप के पांडेय ने अपनी पुस्तक वर्चस्व में लिखा है- "गोरखपुर की स्थानीय सियासत में मठ की भागीदारी शुरू करने वाले महंत दिग्विजयनाथ ने 1932 में महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद का गठन कर ख़ुद को सामाजिक सरोकारों से जोडकर अपने प्रभाव को और भी व्यापक बना दिया । 

इसका लाभ उन्हें राजनीति में भी मिलने लगा था । यहाँ तक तो सबकुछ 'महंत जी' के हिसाब से ही चल रहा था । इस कहानी में मोड़ तब आया जब यूपी के पहले आईएएस (तब के आईसीएस ) और गोरखपुर के डीएम रह चुके सुरति नारायण मणि त्रिपाठी ने गोरखपुर में विश्वविद्यालय की कल्पना की ।"  

यूनिवर्सिटी की नींव के साथ खूनी जंग के बीज 

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एक तरफ़ महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद और दूसरी तरफ़ गोरखपुर यूनिवर्सिटी का निर्माण । मक़सद महंत दिग्विजय नाथ का भी बहुत नेक था । सुरति नारायण त्रिपाठी भी पूर्वांचल का भला चाहते थे, लेकिन एक यूनिवर्सिटी की नींव के साथ ही गोरखपुर शहर में जातियों की खूनी जंग के बीज भी बोए जाने लगे ।  

उत्तर प्रदेश में संगठित अपराध का जो वृक्ष बाद के दिनों में लोगों को डराने लगा, उसकी जड़ों में पानी डालने का काम किया महंत दिग्विजयनाथ और सुरति नारायण मणि त्रिपाठी के अहं की लड़ाई ने । अपनी पुस्तक वर्चस्व में संदीप के पांडेय ने उस घटना का ज़िक्र भी किया है, जिसके बाद से शहर का पहला डॉन शक्ल लेने लगा था ।   

पुस्तक के मुताबिक महंत दिग्विजयनाथ और सूरति नारायण मणि त्रिपाठी विश्वविद्यालय कार्यपरिषद के सदस्य थे । कार्यपरिषद की बैठक के लिए ऐसी व्यवस्था की गई थी कि विश्वविद्यालय के छात्र भी दर्शक दीर्घा में बैठकर मीटिंग को देख सकते थे । वह 1962 का साल था, नियमित रूप से चलने वाली कार्यपरिषद की बैठक में एक रोज़ महंत जी और डीएम साहब में गर्मागर्म बहस चल रही थी । 

चर्चा की मानें तो बैठक में बहस के दौरान सुरतिनारायण मणि त्रिपाठी के किसी मत से चिढ़कर महंत दिग्विजयनाथ ने अपनी छड़ी उठाकर उन्हें मारने का इशारा करते हुए कहा- इसी छडी से मारूँगा । तभी दर्शक दीर्घा में बैठे एक छात्र ने महंत जी की इस हरकत का विरोध कर दिया । 

कुछ ही पलों अंदर घटी इन दोनों घटनाओं से वहाँ मौजूद सभी लोग सकते में आ गए । महंत जी की हरकत से अगर डीएम साहब अचंभित हुए थे तो उस छात्र के साहस से महंत जी दंग रह गए थे ।

पूरा शहर जिस छात्र की चर्चा कर रहा था… वो कौन था ?  

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ये वही हरिशंकर तिवारी थे जिन्होंने ब्राह्मण जाति के लिए मरने-मारने के लिए उतारू गैंग तैयार किया और लंबे वक़्त तक चलाया । हरिशंकर तिवारी को सबसे पहले लड़ने-भिड़ने वाला हुनर सिखाने वाला और कोई नहीं बल्कि गोरखपुर के तबके डीएम सूरति नारायण मणी त्रिपाठी ही थे । 
 
हरिशंकर तिवारी पर सूरति नारायण त्रिपाठी की नज़र बनी हुई थी… गाहे-ब-गाहे वो गिने-चुने लोगों के सामने इस छात्र की हिम्मत का ज़िक्र भी कर दिया करते 

दिग्विजय नाथ और सुरति नारायण त्रिपाठी के बीच जाति वाला ईगो

सुरति नारायण मणि त्रिपाठी का देवरिया ज़िले के जमींदार परिवार से ताल्लुक था । गोरखपुर विश्वविद्यालय के निर्माण में सुरति नारायण की भूमिका काफी अहम थी । तब के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने गोरखपुर विश्वविद्यालय का काम शुरू करवाया । 

सुरति नारायण त्रिपाठी ब्राह्मणों में लोकप्रिय हुए तो दिग्विजय नाथ को अखरने लगे । महंत दिग्विजय नाथ गोरखपुर शहर में पीठ और राजपूतों का सिक्का चलाना चाहते थे, लिहाजा दिग्विजय नाथ और सुरति नारायण त्रिपाठी का जाति वाला ईगो बढ़ता चला गया ।  

उस समय यूपी के पूर्वांचल में वाराणसी और इलाहाबाद के अलावा कहीं और कोई दूसरा विश्वविद्यालय नहीं था। ये दोनों विश्वविद्यालय ही पूर्वांचल में उच्च शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र थे । गोरखपुर यूनिवर्सिटी के बनने तक तो दिग्विजय नाथ और सुरति नारायण त्रिपाठी मन मारकर भी एक दूसरे का साथ निभाते रहे, लेकिन उसके बाद माहौल बिगड़ता गया ।  1 सितंबर 1957 को पहला शैक्षिक सत्र शुरू हुआ । 

एक दिन जब टूट गई हद ...

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'महंत जी' और 'डीएम साहब' के बीच मनमुटाव भले ही रहा हो लेकिन दोनों ने कभी एक दूसरे को सीधे-सीधे अपमानित करने जैसा कोई काम नहीं किया.. लेकिन एक दिन वो हद टूट गई… ।

कार्यपरिषद की बैठक वाली घटना को अभी बमुश्किल कुछ ही दिन बीते होंगे कि गोरखपुर शहर यह सुनकर दंग रह गया कि यूनिवर्सिटी कैंपस में हरिशंकर तिवारी ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर महंत दिग्विजयनाथ पर थप्पड़ चला दिया है । 

 खबर के मुताबिक़, हरिशंकर तिवारी बड़ी संख्या में अपने साथियों को लेकर कार्यपरिषद की बैठक में घुस आए और वहाँ बैठे लोगों के साथ गाली-गलौज की. कुछ लोगों का कहना है कि इसी दौरान महंत दिग्विजयनाथ पर थप्पड़ चला ( 'वर्चस्व' - संदीप के पांडेय) । 

ख़बर की पुष्टि करने वाला कोई नहीं था लेकिन हरिशंकर तिवारी को इस चर्चा का खूब फ़ायदा मिला । कैंपस में, हॉस्टल में, हर जगह 25 साल के युवा हरिशंकर की चर्चा होने लगी ।

आलम ये कि गोरखपुर शहर के कोर्ट, कचहरी, चौक-चौराहों, चाय की दुकानों पर भी हरिशंकर तिवारी की चर्चा दबंग के रूप में होने लगी… लोगों ने पूछा कि आख़िर गोरक्षपीठ के महंत जी को चैलेंज करने वाला हरिशंकर तिवारी कौन है ? 

हरिशंकर तिवारी कौन ? 

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गोरखपुर के दक्षिणी हिस्से में बड़हलगंज इलाके के टांडा गांव के निवासी थे हरिशंकर तिवारी । मध्यमवर्गीय किसान भोला शंकर तिवारी के यहां 5 अगस्त 1937 को उनका जन्म हुआ था । पिता ने अपने बेटे को पढ़ने के लिए गोरखपुर भेजा, लेकिन हरिशंकर तिवारी राजनीति की ओर मुड़ गए । 

60 के दशक में गोरखपुर में एक ही दबंग चर्चा में रहा और वो था हरिशंकर तिवारी ।  ब्राह्मण और राजपूत दो जातियों की लड़ाई में शहर भी बंटा , कैंपस भी बंटा और युवा भी बंट गए । हरिशंकर तिवारी के ख़िलाफ़ खड़े होने वाले राजपूत युवाओं को दिग्विजय नाथ का संरक्षण हासिल होने लगा । 

1967 आते-आते राजपूत समाज महंत जी की तरफ़ लामबंद होने लगा तो प्रतिक्रिया में ब्राह्मण समुदाय भी हरिशंकर तिवारी का नेतृत्व स्वीकार करने लगा । इस ध्रुवीकरण का सबसे बुरा असर गोरखपुर विश्वविद्यालय पर पड़ा जो इस जाति-संघर्ष के लिए सिपाही आपूर्ति करने का कारखाना बन गया ।

 इन दोनों जातियों के स्वाभिमान ने इस क़दर उबाल खाया कि कैंपस में छात्र तो छात्र, अध्यापक और कर्मचारी संघ भी दो गुटों में बँट गए । एक तरफ़ राजपूत बिरादरी थी तो दूसरी तरफ़ ब्राह्मण लामबंद थे ।

यही वो दौर था जब हरिशंकर तिवारी के बरक्स राजपूतों ने एक युवक को खड़ा करने की कोशिश की । गोरखपुर विश्वविद्यालय में तब एमए की पढ़ाई कर रहे रवींद्र सिंह को यूनिवर्सिटी कैंपस के राजपूतों ने अपना नेता बना लिया.. 

राजपूत मोर्चा थामने वाला रवींद्र सिंह कौन ?

रवींद्र सिंह गोरखपुर के मंझरिया गाँव के रहने वाले थे । राम नरेश सिंह के तीसरे नंबर के बेटे रवींद्र सिंह देखते ही देखते गोरखपुर यूनिवर्सिटी में छात्र राजनीति में राजपूत चेहरा बन गए । इससे पहले वह सेंट एंड्रयूज कॉलेज के छात्रसंघ अध्यक्ष भी रह चुके थे । 

साल 1967 में गोरखपुर विश्वविद्यालय में छात्रसंघ का चुनाव रवींद्र सिंह ने जीत लिया तो हरिशंकर तिवारी के विरोधियों का हौसला बढ़ा । जो लोग अब तक हरिशंकर तिवारी के ख़िलाफ़ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे, उनमें से एक शख़्स थाने तक जा पहुँचा ।  

रवींद्र सिंह के छात्रसंघ अध्यक्ष बनने के अगले ही साल 18 मार्च 1968 को मदनलाल नाम के एक व्यक्ति ने गोरखपुर कोतवाली में जाकर एक रिपोर्ट दर्ज कराई जिसके मुताबिक़, हरिशंकर तिवारी ने अपने साथियों के साथ मिलकर उसका अपहरण किया और उसे धमकी दी । हरिशंकर तिवारी के ख़िलाफ़ यह पहला केस दर्ज हुआ था ।  

पुलिस के लिए सिरदर्द बने गोरखपुर के दो गैंग 

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गोरखपुर में अब बन चुके थे । इटली के सिसली की तरह यहां भी माफ़िया राज की झलक मिलने लगी थी ।  हरिशंकर तिवारी और रवींद्र सिंह के गैंग में मारपीट की घटनाएँ आम हो चलीं थीं । जब जिसे मौक़ा मिलता वो मारपीट कर चल निकलता । 

गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी का नाम जिस तेजी से बढ़ रहा था उसी अनुपात में उनकी दुश्मनी भी बढ़ती जा रही थी । गोरखपुर शहर के ही लोकल गुंडे मनू हलवाई से तिवारी की नई-नई अदावत शुरू हुई थी, जो उन दिनों बस्ती जेल में बंद था। 11 सितंबर 1970 को बस्ती जेल से गोरखपुर पेशी पर लाए जाने के दौरान गोलघर मार्केट में उसकी हत्या हो गई । इसका आरोप हरिशंकर तिवारी पर लगा । 

उत्तर प्रदेश पुलिस की बदनामी हो रही थी । आख़िर खुली गुंडागर्दी की छूट किसी को कैसे दी जा सकती थी । लखनऊ से फ़रमान आया और पुलिस हरिशंकर तिवारी को उठा ले गई । इस तरह पहली बार जेल की सलाख़ों के पीछे पहुँच गये हरिशंकर तिवारी । कहते हैं माफ़िया या अपराधी जेल होकर आ जाए तो उसका रूतबा बढ़ जाता है । हरिशंकर तिवारी के साथ भी ऐसा ही हुआ । 

अंडरवर्ल्ड हो या राजनीति, बॉस को सबसे ज्यादा पोषण वफ़ादारी से ही मिलता है और इस मामले में हरिशंकर तिवारी अपनी किस्मत ऊपर से ही लिखा कर लाए थे। तिवारी अक्सर पहलवानी के दाँवपेंच आजमाने  अखाड़े जाया करते थे। 

अखाड़े में ही उनकी मुलाकात पहलवान रूदल सिंह से हई जो भविष्य में होने वाले इस गैंगवार का एक चर्चित नाम बनने जा रहे थे । इसके अलावा शौकत अली, अमल चटर्जी, पृथ्वी चतुर्वेदी, कृष्ण चंद्र तिवारी, बलराम चंद्र, परमात्मा तिवारी सरीखे नामों के साथ-साथ 50 के आस-पास युवा तिवारी के विरोधियों को खत्म करना ही अपने जीवन का ध्येय बना चुके थे। 

साल 1969 में 75 साल की उम्र में महंत दिग्विजयनाथ का निधन हो गया, इसके साथ ही गोरक्षपीठ का रसूख़ थोड़ा कम पड़ा । 
हरिशंकर तिवारी को गोरखपुर में चैलेंज करने वाला अब कोई नहीं बचा ।  सत्तर के दशक में हरिशंकर तिवारी ने माफ़िया से राजनीति का रूख किया... (जारी ) 

( संदर्भ : संदीप के पांडेय की पुस्तक 'वर्चस्व' )

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