इंसाफ की लड़ाई या वोट की राजनीति ?

Authored By: News Corridors Desk | 16 Oct 2025, 04:07 PM
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कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार दलित समुदाय से जुड़े मामलों में एक्टिव नजर आ रहे हैं। एक तरफ इसे इंसाफ की लड़ाई और संवेदनशीलता के रूप में देखा जा रहा है, तो दूसरी तरफ इसे "दलित वोट बैंक" की राजनीति भी कहा जा रहा है। खासकर तब, जब कांग्रेस उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों में दोबारा अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रही है जहां दलित समुदाय का वो कांग्रेस से छिटक चुका है। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है- क्या राहुल वाकई अन्याय के खिलाफ खड़े हैं या चुनावी तैयारी में लगे हैं?

राहुल की दलित राजनीति: पूरन परिवार से मिले

राहुल गांधी चंडीगढ़ में उस आईपीएस अधिकारी वाई पूरन कुमार के परिवार से मिले, जिन्होंने कथित जातीय भेदभाव, मानसिक उत्पीड़न और कार्यस्थल पर अपमान से तंग आकर खुद की ज़िंदगी खत्म कर ली। वाई पूरन कुमार ने अपने नोट में लिखा कि उनके सीनियर अफसर उन्हें जाति की वजह से बार-बार परेशान कर रहे थे और मानसिक दबाव बना रहे थे। राहुल गांधी ने उनके परिवार से मिलकर दुख जताया और कहा कि यह सिर्फ एक अफसर की नहीं, बल्कि पूरे दलित समाज के साथ हो रहे अन्याय की बात है। उन्होंने सरकार से इस मामले में सख्त कार्रवाई करने की मांग की। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है- क्या राहुल वाकई अन्याय के खिलाफ खड़े हैं या चुनावी तैयारी में लगे हैं?

अब यूपी में दलित परिवार से मुलाकात

राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में हरिओम वाल्मीकि के परिवार से मिले हैं। हरिओम को रायबरेली में चोर समझकर भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला था। यह बहुत ही दुखद और शर्मनाक घटना थी, जिससे दलित समाज में काफी गुस्सा है। राहुल गांधी की ये यात्रा कुछ लोगों को दुख बाँटने की कोशिश लग रही है, लेकिन कुछ जानकार मानते हैं कि यह दलित समाज का भरोसा जीतने की राजनीति भी हो सकती है—खासकर जब कांग्रेस यूपी जैसे बड़े राज्य में फिर से अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रही है।

दलित खरगे को अध्यक्ष बनाया

साथ ही  कांग्रेस ने दलित समुदाय से जुड़े मल्लिकार्जुन खरगे को पार्टी अध्यक्ष बनाकर ये भी दिखा दिया कि दलित वोट बैंक अब उनकी पहली प्राथमिकता है। रायबरेली की दर्दनाक मॉब लिंचिंग और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर हमले की कोशिश जैसे मामलों पर राहुल गांधी और खरगे दोनों ने कड़े बयान जारी किए थे। लेकिन सवाल ये है, कि क्या ये सच में दलितों के लिए है या बिखर चौके अपने दलित वोट को आने वाले चुनावों में फिर जोड़ने की सियासी चाल? कांग्रेस हर मुद्दे को चुनावी हथियार बना रही है, ताकि बिहार समेत जहां-जहां चुनाव हैं, वहां दलित वोटों को अपनी ओर खींच सके। ऐसे में ये कवायद असल मुद्दों की बात कम और राजनीति का खेल ज्यादा नजर आ रही है।


दलित कांग्रेस से क्यों छिटका
राहुल गांधी ने  दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान कहा था कि दलित और ओबीसी समुदाय ने कांग्रेस से दूरी बनाई है। उनका कहना था कि कांग्रेस इन समुदायों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी, जिस वजह से उनका समर्थन कमजोर हो गया। इस कारण ये वोटर अन्य पार्टियों की ओर रुख कर गए।
उम्मीदों का टूटना, विकास की कमी और  विकल्प की मौजूदगी ने दलितों को कांग्रेस से दूर किया ।
उम्मीदों का टूटना
कांग्रेस ने दलित और ओबीसी समुदाय के लिए आरक्षण और सामाजिक न्याय जैसे बड़े वादे किए थे। लेकिन जब इन्हें लागू करने की बात आई, तो पार्टी असफल रही। इससे इन समुदायों को लगा कि कांग्रेस उनकी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेती। वीपी सिंह के म॔डल  तीर ने रहा सहा कसर भी निकाल दिया।

विकास की कमी
दलित और ओबीसी समुदाय को शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसे जरूरी क्षेत्रों में कोई खास सुधार नहीं मिला था। उनकी जिंदगी में बदलाव नहीं आया था, जिससे उनका भरोसा कांग्रेस से कम हो गया।

विकल्प की तलाश
जब कांग्रेस उम्मीदों पर खरा नहीं उतरी, तो बसपा, सपा और भाजपा जैसी पार्टियों ने इन समुदायों को अपने साथ जोड़ा। उन्होंने इन वोटरों को बेहतर विकल्प दिया  जिससे कांग्रेस का दलित-ओबीसी वोट बैंक कमजोर हो गया।

कांग्रेस का दलित वोट किसने छीना ?

कांग्रेस का दलित वोट धीरे-धीरे दूसरी पार्टियों ने ले लिया। सबसे ज्यादा वोट बसपा ने छीना, खासकर उत्तर प्रदेश में। बसपा ने दलितों को अपना समर्थन दिया और कांग्रेस की ताकत कम की। इसके अलावा समाजवादी पार्टी (सपा) और भाजपा ने भी दलित वोट हासिल किए। कुल मिलाकर बसपा, सपा और भाजपा ने मिलकर कांग्रेस से दलित वोट छीन लिए।

क्या सिर्फ मिलने से कांग्रेस में लौटेंगे दलित

सिर्फ परिवारों से मिलकर और सहानुभूति जताकर कांग्रेस फिर से दलित वोट बैंक को जीत पाना मुश्किल है । अब सिर्फ भावनात्मक समर्थन से दलित समाज का भरोसा लौटना आसान नहीं होगा। अब एक बार फिर कांग्रेस को अब जमीन पर ठोस काम करना होगा। दलितों की उम्मीदें अब सिर्फ दिखावे से नहीं, बल्कि सच्चे और प्रभावी कदमों और योजनाएं पेश करने से जुड़ी हैं। अब कांग्रेस के आगे सबसे बड़ा सवाल ये है, की क्या राहुल गांधी और कांग्रेस नेतृत्व इस चुनौती को समझ पाएंगे, या दलित वोट फिर से मायावती और अन्य दलों के पास में चला जाएगा?

मायावती, रावण , अखिलेश का पीडीए फिर क्या करेगा

मायावती, चंद्रशेखर आजाद 'रावण' और अखिलेश याव का पीडीए सभी दलितों की रहनुमाई का दावा करते हैं। ये खासकर दलित और ओबीसी समुदाय के वोटरों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। ये नेता अपने-अपने इलाके में प्रभाव रखते हैं और लोगों के बीच उनकी अच्छी पकड़ है। इस वजह से पीडीए कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है।
अगर कांग्रेस इन वोटरों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरी, तो पीडीए को फायदा मिलेगा और वह ज्यादा वोट हासिल कर सकता है। विशेषज्ञों की राय है कि कांग्रेस को चाहिए, कि वह सिर्फ सहानुभूति जताने तक सीमित न रहे, बल्कि असली काम करके अपने वोटर्स का भरोसा फिर से जीते।
अब आप भी सोचिये की क्या कांग्रेस दूसरी पार्टियों को टक्कर दे पाएगी, या फिर दलित और ओबीसी वोट फिर उससे दूर रहेंगे।