बर्बर आक्रांता सैयद सालार मसूद गाजी उर्फ सूफी संत गाजी मियां! यह राम नाम के प्रभाव से एक डाकू से महर्षि बाल्मीकि बनने की कहानी नहीं है। न ही यह गौतम बुद्ध के प्रभाव में आकर डाकू अंगुलीमाल के हृदय परिवर्तन जैसी प्रेरक गाथा है। यह तो सनातन विरोधी उस इको सिस्टम की साजिश का जीता-जागता उदाहरण है जिसने न जाने कितने वहशी दरिंदों को संतत्व और देवत्व का चोला पहना कर स्थापित करने की कोशिश की है ।
कभी तलवार के जोर पर, कभी सत्ता की हनक से और कभी फेक नैरेटिव के मायाजाल से, कई सौ वर्षों तक जिस सच को दफन करके रखा गया, आज जब वह कब्रों से निकल कर लोगों के सामने आ रहा है तो हड़कंप मचना लाजमी है।
यह वही इको सिस्टम है जो आज भी हजारों हिंदूओं का कत्लेआम कराने वाले और सैकड़ों हिंदू मंदिरों को तोड़कर उसे मस्जिद की शक्ल देने वाले इतिहास के सबसे बर्बर शासकों में से एक औरंगजेब को पीर बताता है। यह वही इको सिस्टम है जो हजारों हिंदूओं का कत्लेआम करने वाले एक बहशी लुटेरे को सूफी संत के रूप में स्थापित कर देता है और उसे हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बताता है।
परन्तु अब जब आवाज उठी है तो दूर तक जाती दिख रही है। जब से प्रशासन ने संभल में सैयद सालार मसूद गाजी के नाम पर लगने वाले मेले पर रोक लगाई है, तबसे इसको लेकर राजनीति काफी गरमाई हुई है ।
मेले को लेकर क्यों छिड़ा है विवाद ?
उत्तर प्रदेश के बहराइच में सैयद सालार मसूद गाजी की कब्र है जो गाजी मियां की दरगाह के नाम से मशहूर है। हर साल जेठ माह में यहां उर्स यानि मेला लगता है। गाजी मियां के नाम से ही संभल में नेजा मेला का आयोजन किया जाता है। कई और जगहों पर भी ये मेला लगता है।
मेले को लेकर विवाद तब शुरू हो गया जब पिछले दिनों संभल प्रशासन ने इसकी इजाजत देने से मना कर दिया। सोशल मीडिया पर संभल के पुलिस अधिकारी श्रीशचंद्र का एक बयान आया जिसमें वो कह रहे हैं कि निर्दोष लोगों का कत्लेआम करने वाले किसी लुटेरे की याद में मेले की इजाजत नहीं दी जाएगी। उन्होंने प्रशासन की बात न मानने वालों पर कठोर कार्रवाई की चेतावनी भी दी है।
संभल में मेले पर रोक लगने के बाद कई संगठन बहराइच और अन्य जगहों पर गाजी मियां के नाम पर लगने वाले मेलों पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं। इनमें बहराइच के अलावा बाराबंकी, अमरोहा, भदोही, मुरादाबाद समेत कई अन्य ज़िले शामिल हैं ।
उत्तर प्रदेश के मंत्री ने भी मेलों पर रोक की मांग
सैयद सालार मसूद गाजी के नाम पर लगने वाले मेलों पर रोक लगाने की मांग करने वालों में योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री अनिल राजभर भी शामिल हैं। उन्होने चंदौली के एक कार्यक्रम में कहा कि, सैयद सालार मसूद के नाम पर सबसे बड़ा मेला श्रावस्ती और बहराइच में लगता है, उस पर भी प्रतिबंध लगाने की जरूरत है ।
समाजवादी पार्टी पर हमला करते हुए अनिल राजभर ने कहा कि, समाजवादी पार्टी के लोगों को जब-जब मौका मिला है तब-तब इन्होंने आतंकवादियों और आक्रांताओं को महिमा मंडित करने के साथ-साथ देश विरोधी ताकतों को प्रश्रय दिया है । कई हिंदूवादी संगठन भी सालार गाजी को संत बताने का विरोध कर रहे हैं।
कौन था सैयद सालार मसूद गाजी ?
सैयद सालार मसूद गाजी के बारे में सत्यापित ऐतिहासिक तथ्य कम ही मौजूद हैं।परन्तु कुछ किताबों और कथाओं में इसका जिक्र है। अबतक मौजूद जानकारी के मुताबिक सालार गाजी कुख्यात लुटेरे और गजनी के आक्रमणकारी महमूद गजनवी का का भांजा और उसका सेनापति था। कहा जाता है कि सालार गाजी भी अपने मामा की तरह ही बेहद क्रूर हत्यारा था।
एक समय वह दिल्ली, मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं और कन्नौज में कत्लेआम मचाता और वहां के राजाओं को रौंदता हुआ बाराबंकी पहुंचा। इस दौरान उसने सैकड़ों मंदिरों को भी तोड़ा। बताया जाता है कि बाराबंकी के बाद सालार मसूद गाजी बहराइच पर हमला कर अयोध्या पहुंचना चाहता था। परन्तु 1034 ईस्वी में कौशल के महाराजा सुहेलदेव ने 21 राजाओं के साथ मिलकर उसे न सिर्फ युद्ध में हराया बल्कि उसका वध भी कर दिया। यह भी कहा जाता है कि महाराज सुहेलदेव ने सालार गाजी की करीब एक लाख 30 हजार की सेना को भी खत्म कर दिया था।
लुटेरे से सूफी संत कैसे बन गया सालार गाजी ?
महाराजा सुहेलदेव के साथ लड़ाई में मारे जाने के बाद सैयद सालार मसूद गाजी को बहराइच में ही दफना दिया गया। ऐसा दावा किया जाता है कि उसकी मौत के करीब 200 साल बाद 1250 ईसवीं में दिल्ली के मुगल शासक नसीरुद्दीन महमूद ने उसका मकबरा बनवाया।
इसके बाद से उसे सूफी संत कहकर प्रचारित किया जाने लगा। बाद में फिरोज शाह तुगलक ने मकबरे के पास कई गुंबद बनवाए और उसके बाद मकबरे को दरगाह कह कर प्रचारित किया जाने लगा। दरगाह को प्रसिद्धि दिलाने के लिए कई चमत्कारिक कहानियां भी गढ़ी गईं।
बहराइच में लगने वाले मेले को लेकर भी है विवाद
बहराइच में जिस जगह पर सैयद सालार मसूद गाजी की मजार है, वहीं पर पहले सूर्यकुंड होवे की बात भी कही जाती है जिसके कुछ अवशेष अब भी मौजूद बताए जाते हैं। एक मत यह है कि सूर्यकुंड पर जेठ मेला लगता था। इसी मेले में गाजी मियां का नाम जोड़ दिया गया । कालांतर में यह मेला गाजी मियां के नाम से ही जाना जाने लगा ।
कई जानकारों का मानना है कि सूर्यकुंड पर लगने वाले मेले में पहले से ही बड़ी संख्या में हिंदु लोग शामिल होते थे। नाम बदलने पर भी उनका मेले में पहले की तरह शिरकत करना जारी रहा। इसकी वजह से इसे हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक बताकर प्रचारित करना आसान हो गया। अब कई संगठन फिर से सूर्यकुंड के नाम से ही मेले के आयोजन की मांग कर रहे हैं ।