बिहार में इंडिया गठबंधन का 'दिल्ली दंगल -पार्ट 2'

Authored By: News Corridors Desk | 17 Mar 2025, 08:07 PM
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विधानसभा चुनाव से पहले बिहार की राजनीति बेहद दिलचस्प मोड़ से गुजरती दिख रही है। मुकाबला सिर्फ सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच ही नहीं है बल्कि गठबंधनों के भीतर भी जोरदार रस्साकशी चल रही है। एनडीए में सबसे ज्यादा चर्चा नीतीश कुमार के बेटे की राजनीति में लॉन्चिंग की हो रही है। परन्तु इसके साथ-साथ इंडी गठबंधन में भी फूट की खबरें आ रही हैं। 

सूत्रों के जरिए अंदरखाने से जो जानकारी मिल रही है, उससे चुनाव से पहले नए राजनैतिक समीकरण के संकेत मिल रहे हैं।राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा है कि राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के बीच जबरदस्त तनातनी चल रही है।इसकी जड़ में हैं दो नेता जो लालू यादव की आंखों में कील की तरह चुभ रहे हैं ।

कन्हैया कुमार और पप्पू यादव पर दांव लगाने की तैयारी

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लालू यादव की आंखों में इस वक्त जो नेता सबसे ज्यादा खटक रहा है वो हैं कन्हैया कुमार। हालांकि पप्पू यादव भी चिंता बढ़ा रहे हैं लेकिन कन्हैया ने तो उनकी नींद उड़ा रखी है। राहुल गांधी ने चुनावी साल में जिस तरह से कन्हैया को मोर्चे पर आगे किया है वह महागठबंधन की अंदरूनी राजनीति में बदलते समीकरणों का स्पष्ट संकेत दे रहा है। 

कन्हैया इन दिनों बिहार में 'नौकरी दो, पलायन रोको' यात्रा निकाल रहे हैं, जिससे लालू यादव और तेजस्वी यादव काफी असहज दिख रहे हैं। 24 दिनों तक चलने वाली इस यात्रा में दो बार राहुल गांधी के भी शामिल होने की खबर है।
 
दरअसल इसके संकेत साल की शुरुआत से ही मिलने लगे थे।जनवरी में पटना के एक कार्यक्रम में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने राहुल गांधी से कहा था कि, ' आप जिस तरह से दक्षिण भारत और उत्तर प्रदेश को वक्त देते हैं, उस तरह से बिहार को दीजिए तो कांग्रेस को 1990 से पहले की स्थिति में ला देंगे। इसके बाद बिहार कांग्रेस के प्रभारी कृष्णा अल्लावरू ने कहा था कि, कांग्रेस अब रेस वाले घोड़े पर दांव लगाएगी। 

लालू क्यों नहीं चाहते कि कन्हैया बिहार की राजनीति में सक्रिय हों 

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लालू यादव के लिए इस वक्त सबसे बड़ी प्राथमिकता है बेटे तेजस्वी यादव का राजनैतिक करियर । इसलिए उनके रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करने की वो कोशिश करते रहते हैं। लालू यादव कन्हैया कुमार को भी तेजस्वी के रास्ते का बड़ा रोड़ा मानते हैं । 

दरअसल लालू यादव को अच्छी तरह से पता है कि तेजस्वी के पास उनकी राजनैतिक विरासत के सिवा कुछ भी नहीं है । कन्हैया कुमार की प्रतिभा के सामने तेजस्वी यादव कहीं नहीं टिकते हैं। न तो तेजस्वी के पास कन्हैया जैसी शैक्षणिक योग्यता है, न वैसी तर्क शक्ति है और न उनकी तरह से रणनीति बनाने और उसे जमीन पर उतारने की क्षमता है। 

ऐसे में लालू यादव को यह डर हमेशा बना रहता है कि कांग्रेस ने यदि कन्हैया को पार्टी का चेहरा बना कर उतार दिया तो वह आरजेडी के मुस्लिम वोट बैंक में बड़ी सेंध लगा सकते हैं। इसके अलावा यदि वो अन्य जातियों के वोटर्स को भी जोड़कर नया राजनैतिक समीकरण बनाने में सफल रहे तो तेजस्वी के अरमानों पर पानी फिरना तय है। 

यही वजह है कि 2019 में कन्हैया जब भाकपा के टिकट से चुनाव लड़े तो लालू ने उन्हें हराने का काम किया। कहा जाता है बीजेपी उम्मीदवार गिरिराज सिंह के खिलाफ चुनावी फाइट में लालू यादव ने कन्हैया की जगह एक अन्य उम्मीदवार को सपोर्ट कर बैक डोर से गिरिराज को जिताने में मदद की थी।  

पप्पू यादव भी बढ़ा रहे हैं आरजेडी सुप्रीमो की चिंता 

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कन्हैया कुमार के साथ-साथ पप्पू यादव भी लालू यादव और तेजस्वी यादव के लिए चिंता का कारण बने हुए हैं । हालांकि यादव वोट बैंक अब भी लालू परिवार के पीछे लामबंद है। लेकिन बहुत धीरे-धीरे ही सही, कई जगहों पर इसमें बदलाव भी दिख रहा है।

पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी पप्पू यादव को पूर्णिया से चुनाव लड़ाना चाहती थी, परन्तु लालू यादव ने कांग्रेस को ऐसा करने नहीं दिया। लालू के दबाव में कांग्रेस को झुकना पड़ा। आखिर में पप्पू यादव ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। तेजस्वी यादव ने पूर्णिया में उनके खिलाफ बेहद आक्रामक तरीके से कैंपेन भी किया लेकिन हरा नहीं सके। यहां तक कि यादव वोटरों को भी पप्पू यादव से नहीं तोड़ सके । 

वैसे भी लालू यादव और तेजस्वी यादव के बाद बिहार का यादव समाज यदि किसी शख्स को अपना नेता मानता है तो वह पप्पू यादव ही हैं। इसके अलावा पप्पू यादव की छवि रॉबिनहुड की रही है। बाढ़ से लेकर अन्य आपदाओं के वक्त भी वह सिर्फ अपने चुनाव क्षेत्र ही नहीं बल्कि दूसरे इलाकों में भी जनता के बीच दिखते हैं।जाहिर है ऐसे में यदि उनका राजनीतिक कद बढ़ता है तो तेजस्वी के लिए परेशानी बढ़ सकती है । 

राहुल गांधी ने क्यों बदली रणनीति ? 

कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल का गठबंधन 25 साल से भी ज्यादा पुराना है।कुछ मौकों को छोड़ दें तो इस अवधि में दोनों ही पार्टियां साथ मिलकर चुनाव लड़ती रही है। फिर ऐसा क्या हो गया कि दोस्ती में दरार आ गई ? इसका जवाब तलाशने के लिए हमें शोड़ा पीछे जाना पड़ेगा। आजादी के बाद से लेकर 1990 तक के कालखंड में ज्यादातर समय कांग्रेस ने बिहार पर राज किया। लेकिन 1990 में सत्ता छिनने के बाद से पार्टी खुद को संभाल नहीं पाई और लगातार पिछड़ती गई। आज की तारीख में बिहार में वह हाशिये पर पहुंच गई है । 

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अब कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को इस बात का शिद्दत से एहसास हो रहा है कि इतने लंबे से आरजेडी के साथ गठबंधन का उन्हें कोई फायदा नहीं मिला। कांग्रेस को उम्मीद थी कि लालू के सहारे पार्टी अपनी जमीन को कुछ हद तक बचाए रखने में सफल रहेगी। परन्तु लालू यादव ने कांग्रेस को कभी इतना स्पेस दिया ही नहीं कि वो फिर से खड़ा होने की कोशिश भी कर सके । 

इस बीच पिछले लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस को इस बात का एहसास हुआ है कोशिश करने पर मुस्लिम वोट बैंक को वापस अपने पाले में खींचा जा सकता है । यदि ऐसा हो पाया और कुछ अन्य जातियों को मिलाकर पार्टी एक नया राजनैतिक समीकरण गढ़ने में थोड़ा भी सफल रही तो बिहार की राजनीति में फिर से पैर रखने की जगह मिल सकती है । 

क्या बिहार में दिखेगा इंडिया गठबंधन का 'दिल्ली दंगल - पार्ट 2' 

अब सवाल उठता है कि क्या बिहार में भी इंडिया गठबंधन का वही हश्र होनेवाला है जैसा कि दिल्ली में हुआ ? क्या जिस तरह से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने एक-दूसरे के खिलाफ खुलकर ताल ठोका और उसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला , वैसा ही बिहार में भी होगा ? क्या वाकई में कांग्रेस ने एकला चलो का बिगुल फूंक दिया है ? 
राजनीति के कई जानकार इसे कांग्रेस की लालू यादव पर दबाव बनाने की रणनीति भर मानते हैं । उनका कहना है कि कांग्रेस अभी बिहार चुनाव में अकेले ज्यादा कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं । इसलिए कन्हैया को सामने कर वह लालू से ज्यादा विधानसभा सीटों के लिए मोल भाव करने की कोशिश कर सकती है ।